27 नक्षत्रों के 27 वृक्ष (नक्षत्र राशि तथा ग्रह के लिए निर्धारित पेड़ पौधे)

जिस प्रकार प्रत्येक ग्रह और राशियों के अपने-अपने वृक्ष होते हैं ठीक बैसे ही प्रत्येक नक्षत्र के भी अपने वृक्ष होते हैं। अपने वृक्ष होने का अर्थ है जो उस ग्रह या नक्षत्रों के प्रतिनिधि हों।
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या ऐसे वृक्ष जिन पर उक्त ग्रहों का प्रभाव रहता है इसलिए वैदिक साहित्य में “वृक्ष पूजन” का स्पष्ट निर्देश दिया गया है

जब भी कोई व्यक्ति बहुत परेशानियों में घिर जाता है (चाहे उस परेशानी का कारण कुछ भी हो) तब ज्योतिषी, जन्मकुंडली के आधार पर सबसे पहले यह जानने का प्रयास करते हैं कि
किस ग्रह नक्षत्र, राशि वा राशि स्वामी के कारण वह जातक परेशान है।

पुनः उस ग्रह अथवा राशि के कारकत्व को आधार बनाकर जातक के परेशानी को दूर करता है। उन कारकतत्व में पेड़-पौधे भी आते है। जन्म कुंडली में बुरे ग्रहो के प्रभाव को कम करने के लिए तथा शुभ ग्रहो के शुभत्त्व को बढ़ाने के लिए
निर्धारित पेड़-पौधों की सेवा तथा उसके जड़ को धारण करने का विधान है।

ऊपर दिए गए चित्र में चारों तरफ 3 घेरे बने हुए हैं जो सबसे ‘पहला घेरा’ है उसमें ‘27 नक्षत्रों’ के नाम हैं और उनकी पोधो के नाम साथ में लिखे हुए हैं

‘दूसरे घेरे’ में ‘12 राशियों’ के नाम उनके पौधों के साथ लिखे हुए
और ‘तीसरे घेरे’ में ‘नौ ग्रहों’ के नाम लिखे हुए हैं और उनसे संबंधित पेड़ पौधों के नाम भी लिखे हुए हैं।

ग्रह,राशि,नक्षत्र के आसार पेड़-पौधे प्रयोग करने से अंतश्चेतना में सकारात्मक सोच का संचार होता है और वे परिस्थितियों को अनुकूल करने में सहायक सिद्ध होते हैं

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नवग्रह समिधा के नाम 🙏🏻🚩
(नवग्रह के पौधे एवं ग्रह शांति में उनके योगदान)

भारतीय ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों को अपने अनुकूल बनाने के लिए ‘वनस्पति’ की विशेष भूमिका रही है। उसके अनुसार पेड़-पौधों लगाने और इनके हवन-पूजन से ग्रहों संबंधी कई समस्याएं दूर होती हैं।

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ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों की संख्या 9 बतायी गई है

सूय्र्यचन्द्रो मंगलश्च बुधश्चापि बृहस्पति:।
शुक्र: शनेश्चरो राहु: केतुश्चेति नव ग्रहा:।।

ऐसी मान्यता है कि इन ग्रहों की विभिन्न नक्षत्रों में स्थिति के अनुसार प्रत्येक मनुष्य पर इनके अलग-अलग प्रभाव पड़ते हैं,

ये प्रभाव अनुकूल और प्रतिकूल दोनों होते हैं। ग्रहों के प्रतिकूल प्रभावों को शांत करने के लिए शास्त्रों में अनेक उपाय बताये गये हैं जिनमें एक उपाय ‘यज्ञ’ भी है।

यज्ञ द्वारा हर ग्रह शांति के लिए अलग अलग विशिष्ट वनस्पति की समिधा (हवन प्रकाष्ठ) प्रयोग की जाती है,

जैसा श्लोक में वर्णित है

“अर्क: पलाश: खदिरश्चापामार्गोऽथ पिप्पल:
औडम्बर: शमी दूव्र्वा कुशश्च समिध: क्रमात्”(गरुण पुराण)

अर्थात्

1-‘सूर्य ग्रह’ की शान्ति हेतू ‘अर्क (मदार)’ की समिधा का प्रयोग होता है मदार की लकड़ी में उसके पत्तों व गाय का घी मिलाकर हवन करने से रोग नाश होते हैं


2- चंद्र के लिए

पलाश के पेड़ में ब्रह्मा, विष्णु व महेश का निवास माना जाता है। पलाश के सूखे हुए फूल देवी देवताओं को कार्तिक माह में चढ़ाने से ग्रह बाधा दूर हो जाती है।

इसके वृक्ष को घर से दक्षिण-पूर्व (southeast) दिशा में लगाना चाहिए
इस देश को लूटने वाले हमारे प्यारे बन गए और इसे सोने की चिड़िया बनाने वाले चक्रवर्ती सम्राट महाराजा विक्रमादित्य को भुला दिया गया!

सम्राट विक्रमादित्य के नाम से विक्रम संवत चल रहा और 2078 पूर्ण होकर 2 अप्रैल (चैत्र शुक्‍ल प्रतिपदा) से 2079 विक्रम संवत आरम्भ हो रहा।

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महान सम्राट महाराजा विक्रमदित्य (विक्रम सेन परमार) और उनकी वीरता और महानता के बारे में आज देश के सिर्फ़ मुट्ठी भर लोगों को ज्ञात होगा, कि उन्होंने इस देश को सोने की चिड़िया बनाया था और देश में स्वर्णिम काल लाया था

विक्रमादित्य के पिता जी का नाम गर्दभील्ल (गंधर्वसेन) था।

सम्राट विक्रमादित्य की बहन का नाम मैनावती था तथा उनके भाई भर्तृहरि महाराज थे। सम्राट विक्रमादित्य की माँ जी का नाम सौम्यदर्शना था।

महाराज विक्रमादित्य, चक्रवर्ती (अर्थात् जिसका संपूर्ण भारत में राज हो) सम्राट थे कहते हैं उनके राज में कभी भी सूर्यास्त नहीं होता था।

महाराज विक्रमादित्य ने हिंदुत्व का परचम पूरे विश्व में लहराया था तथा उन्हीं के कारण ही आज सनातन धर्म बचा हुआ है।

सम्राट विक्रमादित्य का जन्म 101 BCE अवंतिका( उज्जैन) मध्य प्रदेश में हुआ था और 57 BCE में शको ( विदेशी आक्रमणकारियों ) को हराने के उपलक्ष में

नए काल सत्र का निर्माण किया, जिसे हिंदू पंचांग में “विक्रम संवत” के नाम से जाना जाता है |
आज जो भी ज्योतिष गणना है जैसे , हिन्दी सम्वंत , वार ,तिथीयाँ , राशि , नक्षत्र , गोचर आदि उन्ही की रचना है

(विक्रमी संवत् = current year + 57)
ऋषि, मुनि, महर्षि, साधु और संत में क्या अंतर होता है?

भारत में प्राचीन काल से ही ऋषि-मुनियों का विशेष महत्व रहा है।आज से सैकड़ों साल पहले 'ऋषि', 'मुनि', 'महर्षि' और 'ब्रह्मर्षि' समाज के पथ प्रदर्शक माने जाते थे. तब यही लोग अपने ज्ञान और तप के बल पर समाज कल्याण का कार्य किया


करते थे और लोगों को समस्याओं से मुक्ति दिलाते थे। आज के समय में हमें कई तीर्थ स्थलों, मंदिरों, जंगलों और पहाड़ों में साधु-संत देखने को मिल जाते हैं. लेकिन वे ऋषि-मुनियों की तरह इतने ज्ञानी नहीं होते.

आइए जानते हैं ऋषि, मुनि, महर्षि, साधु और संत में क्या अंतर है

ऋषि :~

ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति 'ऋष' है जिसका अर्थ 'देखना' या 'दर्शन शक्ति' होता है।

ऋषि अर्थात "दृष्टा" भारतीय परंपरा में श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने (यानि यथावत समझ पाने) वाले जनों को कहा जाता है। वे व्यक्ति विशिष्ट जिन्होंने अपनी विलक्षण एकाग्रता के बल पर गहन ध्यान में


विलक्षण शब्दों के दर्शन किये उनके गूढ़ अर्थों को जाना व मानव अथवा प्राणी मात्र के कल्याण के लिये ध्यान में देखे गए शब्दों को लिखकर प्रकट किया। इसीलिये कहा गया -

“ऋषयो मन्त्र द्रष्टारः न तु कर्तारः।”

अर्थात् ऋषि तो मंत्र के देखनेवाले हैं नकि बनानेवाले

अर्थात् बनानेवाला तो केवल एक परमात्मा ही है

मुनि :~

मुनि वह है जो मनन करे, भगवद्गीता में कहा है कि जिनका चित्त दु:ख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निश्चल बुद्धिवाले मुनि कहे जाते हैं। वैदिक ऋषि जंगल के कंदमूल खाकर जीवन

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"I lied about my basic beliefs in order to keep a prestigious job. Now that it will be zero-cost to me, I have a few things to say."


We know that elite institutions like the one Flier was in (partial) charge of rely on irrelevant status markers like private school education, whiteness, legacy, and ability to charm an old white guy at an interview.

Harvard's discriminatory policies are becoming increasingly well known, across the political spectrum (see, e.g., the recent lawsuit on discrimination against East Asian applications.)

It's refreshing to hear a senior administrator admits to personally opposing policies that attempt to remedy these basic flaws. These are flaws that harm his institution's ability to do cutting-edge research and to serve the public.

Harvard is being eclipsed by institutions that have different ideas about how to run a 21st Century institution. Stanford, for one; the UC system; the "public Ivys".